धर्म एक तरह की सोच तथा जीवन पद्धति अपनाने को कहते हैं धर्म के बहुत से अर्थ हैं धर्म का शाब्दिक अर्थ होता है, 'धारण करने योग्य’ सबसे उचित धारणा, अर्थात जिसे सबको धारण करना चाहिये'- सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, संतोष, तप, क्षमा, कर्तव्य, अहिंसा, न्याय, सदाचरण, सद्-गुण आदि। धर्म के नियमों का पालन करना ही धर्म का पालन करना है धर्म से संबन्धित भिन्न भिन्न लोगो के भिन्न भिन्न मत हैं हमारे देश मे कई तरह के धर्म हैं जैसे हिन्दू मुश्लिम, सिख, ईसाई इन सभी लोगो की सोच उनका जीवन को जीने का तरीका एक दूसरे से थोड़ा अलग है ऐसा माना जाता है कि धर्म मानव को मानव बनाता है। एक तरह से हम देखे तो सभी धर्म एक दूसरे को एकजुट होने का जरिया बताते हैं सभी धर्म सत्य के मार्ग पर चलने, ईमानदारी अपनाने तथा एक दूसरे की मदद करने का मार्ग हमे बताते हैं जो हम दूसरों की अच्छाई व दूसरों की खुशी के लिए करते हैं वास्तव मे यही धर्म हमे सिखाता है की हर एक आदमी को धर्म का पालन करना चाहिए चाहे वो किसी भी धर्म का हो। क्योंकि धर्म ही हमे जीवन जीना तथा जीवन मे आगे बढ़ना सिखाता है इसका सबसे बड़ा उदाहरण भगवान श्री राम हैं प्रभु श्री राम ने भी धर्म का पालन करने के लिए बहुत कुछ त्याग किया था वे हमे सिखाते हैं की धर्म के मार्ग पर चलना चाहिए। चाहे जीवन मे कितनी ही कठिनाई क्यों न आए। हमे भी अपने धर्म का पालन करना चाहिए।
क्योंकि धर्म ही हमारी एकता का प्रतीक है। कुछ लोगो के अनुसार आग का धर्म
है जलना, धरती का धर्म है धारण करना और जन्म देना, हवा का धर्म है जीवन देना उसी तरह हर आदमी का
धर्म गुणवाचक है। अर्थात गुण ही धर्म है सनातन धर्म में चार पुरुषार्थ स्वीकार किए गये हैं
जिनमें धर्म प्रमुख है। तीन अन्य पुरुषार्थ ये हैं- अर्थ, काम और मोक्ष। वेद
व्यास रचित महाभारत मे भी लिखा हुआ है की मरा हुआ धर्म मारने वाले का नाश, और रक्षित धर्म रक्षक की रक्षा करता है। इसलिए धर्म का हनन कभी न करना, इस डर से कि मरा
हुआ धर्म कभी हमको न मार
डाले। दर्शन और धर्म दोनों ही
परमसत्ता के सत्य को उद्धारित करना चाहते हैं। दोनो ही के अध्ययन क्षेत्र के
अंतर्गत ईश्वर तथा आत्मा का अस्तित्व, आत्मा की अमरता, ईश्वर की सर्वशक्तिमानता, पुनर्जन्म, मानव जीवन का लक्ष्य आदि विषय शामिल हैं।
इस तरह दर्शन तथा धर्म
के अध्ययन क्षेत्र की विषय वस्तु एक जैसी हैं। धर्म तथा दर्शन दोनों ही मनुष्य के
जीवन में नैतिकता, आस्था तथा मूल्यों की
स्थापना पर जोर देते हैं, ताकि मनुष्य जीवन
श्रेष्ठता की ओर अग्रसर हो। दर्शन तथा धर्म दोनों ही मनुष्य जीवन को नैतिकता तथा
श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों से परिपूर्ण बनाना चाहते हैं, इस हेतु दर्शन बौद्धिक चिंतन प्रणाली को महत्व देता है, जबकि धर्म, आनुष्ठानिक क्रियाओं तथा
धार्मिक कर्मकांडो को प्राथमिकता देता है। धर्म में अनुशासन
होना अत्यंत जरूरी है। वह अनुशासन चाहे शास्त्र का हो, सदगुरु का हो, माता-पिता का हो या किसी बड़े बुजुर्ग का कर्म में
अनुशासन होना चाहिए – यह है
बुद्धि के लिए आश्रय। कर्म में बड़ों का सहारा होना चाहिए – यह है श्रद्धा के लिए आश्रय। कर्म को
अच्छे ढंग से पूर्ण करना चाहिए। हम जो-जो कार्य करें, उसका हमें सतोंष होना चाहिए।
धर्मों
मातेव पुष्णानी धर्म: पाति पितेव च । धर्म: सखेव प्रीणाती धर्म:
स्निहयति बंधुवत ।।
धर्म माता की
तरह हमे पुष्ट करता है, पिता की तरह रक्षा करता है, मित्र की तरह खुशी देता है, और संबंधियों की तरह स्नेह
देता है
स
जीवति गुणा यस्य धर्मो यस्य जीवति ।
गुणधर्मविहीनों
यो निष्फलं तस्य जीवितम ।।
जो गुणवान है धार्मिक है वही जीते हैं जो गुण और धर्म
से रहित हैं उनका जीवन निष्फल है
Nice
ReplyDeleteधन्यवाद सूरज
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